मूक रामलीला

Rama's

 राजस्थान में झुंझुनू जिले के बिसाऊकस्बे की बिना संवाद बोले सम्पन्न होने वाली मूक रामलीला दुनिया में अपनी अलग ही पहचान रखती है। इस रामलीला की खासियत है कि जहां सभी जगह रामलीलाएं नवरात्र स्थापना के साथ शुरू होकर दशहरे अथवा उसके अगले दिन राम के राज्याभिषेक प्रसंग के मंचन के साथ पूरी हो जाती हैं वहीं बिसाऊ की रामलीला का मंचन पूरे एक पखवाड़े होता है। रामलीला में सातवें दिन लंका के पुतले का दहन किया जाता है। बाद में कुम्भकरण, मेघनाद के पुतलों का दहन होता है। दशहरे की बजाय पूर्णिमा के एक दिन पहले (चतुर्दशी को) रावण के पुतले का दहन किया जाता है। भरत मिलाप प्रसंग के साथ पूर्णिमा को रामलीला का समापन होता है। प्रतिदिन कलाकार मुखौटे लगाकर मैदान में नर्तन करते हुए शाम चार बजे से रात आठ बजे तक रामलीला का मंचन करते हैं। जहां सभी जगह रामलीला में रावण अपनी तेज और डरावनी आवाज में दहाड़ता है वहीं बिसाऊ की मूक रामलीला कारावण बोलता नहीं बल्कि खामोशी के साथ मूक बनकर अपना अभिनय करता है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम की मधुर आवाज भी इस रामलीला मे सुनाई नहीं पड़ती है। बिसाऊ की मूक रामलीला देशभर में ही नहीं, अपितु पूरे संसार में होने वाली सभी रामलीलाओं से अलग है। इसके मंचन के दौरान सभी पात्र बिन बोले (मूक बनकर) ही पूरी बात कह जाते हैं। यही नहीं इनके सभी पात्र अपने मुखौटों से अपनी पहचान दर्शाते हैं। यही कारण है कि इसको मूक रामलीला के नाम से जाना जाता है। यहां की रामलीला अपने आप में साम्प्रदायिक सौहार्द के प्रतीक के रूप में भी जानी जाती है। रामलीला का मंचन ढोल-नगाड़ों पर होता है जिनको स्थानीय मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा बजाया जाता है। यहां एक भी लाऊडस्पीकर नहीं लगाया जाता है यहां की रामलीला के लिए स्टेज नहीं लगाया जाता बल्कि मुख्य बाजार में सड़क पर मिट्टी बिछाकर उत्तर दिशा में लकड़ी से बनी अयोध्या व दक्षिण दिशा में लंका तथा बीच में पंचवटीआश्रम बनाया जाता है। ऊपर पत्तों की बंदनवार बांधी जाती है। उत्तर व दक्षिण में दो दरवाजे बनाए जाते हैं। जिन पर लगे पर्दो पर रामायण की चौपाइयां लिखी होती हैं। रामलीला मंचन के दौरान एक पंडित जी रामायण की चौपाइयां बोलते रहते हैं।


रामलीला में श्री राम, श्री लक्ष्मण, श्री भरत, श्री शत्रुघ्न व सीता के मुकुट चांदी के बने होते हैं। रामलीला में अन्य पात्रों के अलावा दो विदूषक भी होते हैं जो लोगों का मनोरंजन करते हैं। बनाए जाने वाले रावण,कुम्भकरण व मेघनाद के पुतले भी आकर्षण का केन्द्र होते हैं। बगैर संवाद बोले स्वरूपों के मुखौटे लगाकर लंबे मैदान में लीला का मंचन किया जाता है। कागज, गत्ते, रंगों से मुखौटे,हथियार बनाए जाते हैं। बालू मिट्टी पर ढोल ताशों की आवाज पर युवा कलाकार नाच-कूद कर अभिनय करते हैं। रामलीला की तैयारियां दो माह पूर्व से रामलीला हवेली में शुरू होने लगती हैं जिसमें स्वरूपों के मुखौटे बनाने,ड्रैस सिलाई, तीर-कमान,गदा, तलवारें आदि तैयार करवाए जाते हैं। रामलीला के पात्रों की पोशाक भी अलग तरह की होती है। अन्य रामलीला की तरह शाही एवं चमक दमक वाली पोशाकन होकर साधारण पोशाक होती है


राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न कीपीली धोती, वनवास में पीला कच्छा व अंगरखा, सिर पर लम्बे बाल एवं मुकुट होता है बताते हैं कि यहां रामलीला की शुरूआत जमुना नामक एक साध्वी द्वारा 185 वर्षों पूर्व की गई जो गांव के पास रामाणा जोहड़ में साधना करती थी। साध्वी वहीं छोटे-छोटे बच्चों को लेकर उनसे मूक अभिनय करवाती थी। तभी से इस रामलीला की शुरूआत मानी जाती है। अब श्री रामलीला प्रबंध समिति इसकी व्यवस्था करती है। प्रबंध समितिका कार्यालय बिसाऊ में एक हवेली में है।इसलिए इसे 'रामलीला वाली हवेली' के नाम से भी जानते हैं। हवेली में गत 50 वर्षों के मुखौटे संग्रहित कर रखे हुए हैं।

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