• मंदिर के निर्माताओं ने जहाँ कलात्मक दो मंजिला भवन का निर्माण किया है, वहीं भविष्य में किसी संकट का अनुमान लगाते हुए कई तहखाने भी बनाए हैं। इन तहखानों में पवित्र मूर्तियों को सुरक्षित रखा जा सकता है। ये तहखाने मंदिर के निर्माताओं की निर्माण संबंधी दूरदर्शिता का परिचय देते हैं। रणकपुर मंदिर आने वाले देसी व विदेशी पर्यटक पांच भाषाओं में 17 प्वाइंट्स पर 40 मिनट में रणकपुर का पूर्ण इतिहास ऑडियो गाइड से हासिल कर सकेंगे। ऑडियो गाइड योजना के ध्वनि प्रदूषण मुक्त होने से मंदिर में पूजा करने वाले भक्तों को पूजा-अर्चना करने में भी कोई व्यवधान नहीं होगा। प्रतिवर्ष रणकपुर को निहारने के लिए 8 लाख देसी व डेढ़ लाख विदेशी पर्यटक यहां पहुंचते हैं। इसे ध्यान में रखते हुए यहां करीब 270 ऑडियो गाइड उपकरण की व्यवस्था की गई है। इसके तहत एक साथ 270 देसी व विदेशी पर्यटक एक साथ इस सेवा का लाभ उठा सकेंगे। रणकपुर के इस जैन मंदिर का क्षेत्रफल लगभग 48400 वर्ग फीट है । इसमें 84 बड़े कमरे हैं । इनमें 1444 स्तम्भ हैं तथा इन स्तम्भों में कोई भी दो स्तम्भ एक प्रकार के नहीं है । मंदिर का मुख्य द्वार पश्चिम में है तथा चारों दिशाओं में चार दरवाजे हैं । संगमरमर से निर्मित इस मंदिर के नीचे तहखाने हैं । इसकी नींव 35 फीट गहरी है जो सप्त धातु से भरी गई है जिससे इस पर कोई कुप्रभाव न डाल सके । मंदिर का भवन 36 सीढ़ियों की ऊंचाई पर तीन मंजिल में स्थित है अपनी बनावट में यह मंदिर 198 फीट लम्बा व 205 फीट चौड़ा है । संवत् 1443 में प्रारंभ हुआ निर्माण कार्य 65 वर्षों तक चलता रहा । सिद्धहस्त कारीगरों द्वारा बेहतरीन नक्कासी व मूर्तियां तराशने का काम किया गया है । संवत् 1498 में इस मंदिर में प्राण फूंके गये - प्रथम तीर्थंकर की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा करके । कहा जाता है कि इसके निर्माण कार्य के लिये 1500 कारीगर व 2700 श्रमिकों ने प्रति दिन कार्य किया । इसके निर्माण में कुल 99 लाख स्वर्ण मुद्राएं काम आई । जैनियों के आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव को समर्पित इस जैन मंदिर में मोमबत्तियों से ही उजाला किया जाता है । बल्ब जलाना पूर्णतः निषिद्ध किया हुआ है । पीढ़ियां से मंदिर की पूजा एक ही परिवार में है । आरती के समय दो विशालकाय घण्टे, जिनमें से एक पुलिंग व दूसरा स्त्रीलिंग के नाम से जाना जाता है, बजाये जाते हैं, जिनका निनाद लगभग पांच किलोमीटर तक सुनाई देता है । प्रत्येक घण्टे का वजन 160 किलोग्राम है । मंदिर के गुम्बदों पर पीतल की जंजीरों की सहायता से लटकी सैकड़ों घंटियां व नूपुर की ध्वनि चित्ताकर्षक है । यह मंदिर जैन व हिन्दू शिल्पकला का अनूठा संगम है । इस मंदिर के प्रवेश द्वार पर भगवान राम के अद्भुत कुत्यों व बाल कृष्ण की लुभावनी लीलाओं को अंकित किया गया है । इसके अतिरिक्त अनेक प्रतिमाओं की कामोत्तेजक भंगिमाएं खजुराहो की प्रस्तर कला व वैभव के शिव मंदिर का स्मरण कराती है । हर प्रतिमा के अपने अलग हाव-भाव हैं । छत पर तराशा हुआ संगमरमर कल्पवृक्ष के पत्ते के रूप में छत पर अधर लटका हुआ है । इस पत्ते पर ‘‘ओ३म’’ तराशा हुआ है । पास ही खम्भे पर एक अत्यंत साधारण मूर्ति बनी हुई है जिसके नीचे लिखा है ‘‘दीपा कारित’’ । यह वही भक्त है जिसके मस्तिष्क ने इस मंदिर का प्रारूप तैयार किया था । किंवदंती है कि शिल्पी दिपाकारित ने अपने आराध्यदेव शिव से स्वप्न में मिली प्रेरणा से इस पावन स्थल का चयन कला की दृष्टि से एक अद्वितीय मंदिर बनाने के लिये किया । दिपाकारित के इस स्वप्न को साकार करने के लिये महाराणा कुम्भा के जैन मंत्री धरणाशाह ने उसे अपार धन उपलब्ध कराकर तथा अपूर्व सहयोग देकर, एक सुन्दर मंदिर बना कर पूरा किया । यही कारण है कि मुख्य रूप से जैन मंदिर होते हुए इसमें हिन्दू देवताओं के साथ-साथ जैन तीर्थंकर भी है
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